चाय!
चाय का नाम सुनते ही याद आ जाती है, छोटी-सी चाय की दुकान, उबलती हुई चाय, जिसके स्वाद की महक आसपास के वातावरण को चायमय कर देता है। हर मौसम चाय का अलग ही स्वाद होता है।
आज हम बात कर रहे हैं, रंगीला राजस्थान के गुलाबी शहर यानी जयपुर की।
जहाँ की प्रसिद्ध है, चाय
“साहू की चाय” इनकी चाय की अब जयपुर ही नहीं देश विदेश में भी चर्चा होती है।
साहू चाय की शुरुआत श्री भंवरलाल जी साहू ने सन् 1968 में की। भंवरलाल जी का बचपन अति मध्यमवर्गीय परिवार में गुजरा, घर के हालात ठीक नहीं थे, छोटे से घर परिवार की जिम्मेदारी साथ थी, ओर घर की स्थिति भी सामने ही थी।
लेकिन बड़े होते ही, पढ़ाई के दौरान ही भंवरलाल जी की सरकारी नौकरी लग चुकी थी। जिससे शुरुआत में परिवार को थोड़ा आर्थिक सहारा मिलने लगा था।
उसी बीच एक दिन ये अपने किसी रिश्तेदार के साथ शहर के शर्मा काॅलेज के करीब चौड़ा रास्ता तक गए हुए थे, जब ये काॅलेज के बाहर खड़े हुए थे।
उसी समय इनके मन में एक विचार आया, कि क्यों ना यहाँ एक चाय की दुकान खोल ली जाए।
तब इन्होंने अपने उस रिश्तेदार से कहा कि यदि यहाँ चाय की दुकान हो तो कितना अच्छे व्यापार की शुरुआत हो सकती है।
काॅलेज ओर आसपास आने- जाने वाले लोगो के लिए चाय आसानी से उपलब्ध हो जाएगी, ओर व्यवसाय की दृष्टि से देखें तो इससे बेहतर ओर कोई जगह नहीं।
यही विचार इन्हें बहुत अच्छा लगा ओर इन्होंने अपनी नौकरी छोड़ने ओर, व्यवसाय में आने का पूरा मन बना लिया।
दुकान के लिए इनके परिवार ने हमेशा साथ दिया, ओर हर तरह से सभी साथ रहे।
वहाँ किराये से दुकान उपलब्ध नहीं थी, परन्तु इन्होंने एक कमरा अपने मौसाजी से किराये पर लिया ओर उस कमरे को दुकान में तब्दील किया।
ओर सन् 1968 से “साहू की चाय” का साहू रेस्टोरेंट के नाम से मुहूर्त हुआ।
दुकान ये ओर इनके परिवारजन मिलकर संभालते थे, दुकान अच्छी चलने लगी थी, गुजारा ठीक से होने लगा था। ओर सन् 1971 के समय इन्होंने अपनी नौकरी से त्याग दे दिया।
परिवार में आर्थिक तंगी थोड़ी दूर होने लगी, सब ठीक चलने लगा। परेशानीयों के बादल अब छंटने लगे थे।
अब लगभग सन् 1977 के करीब आते-आते जहाँ दुकान थी, वह मकान बिक गया चूंकि किराये की दुकान थी, तब वह खाली करना पड़ी।
ओर जमा हुआ व्यवसाय कहीं और स्थापित करना मुश्किल था।
अब व्यवसाय तो जम चुका था, परिवार का आर्थिक रुप से सहारा यही था।
अब क्या करे??
सवाल यही था
तभी वहीं से कुछ दूरी पर मेन रोड पर, जाकर इन्हें एक तहखानेनुमा दुकान किराये से मिली।
जिसमें बहुत कुछ काम बाकी था, इस दुकान के लिए बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ा, पर आखिरी में वह दुकान मिल गई।
ओर इन्होंने वहाँ बाकी काम करवाया फिर कुछ समय बाद दुकान की वहां पुनः स्थापना कर दी।
दुकान वहाँ से यहाँ आने पर ओर ज्यादा अच्छी ग्राहकी होने लगी।ये सुबह चार बजे दुकान खोलते ओर रात को लगभग दो बजे के करीब मंगल करते।
ठंड, गर्मी या कोई सा भी मौसम हो समय के हमेशा पाबंद रहे हैं, इनका मानना है, कि वक्त के पाबंद होने पर ही व्यवसाय में सफलता मिल सकती है।
सुबह जल्दी ओर देर रात तक दुकान खोलना इनका रोजाना का नियम था। ये अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर पूरा समय दुकान पर देते थे, सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी को निभाते ओर परिवार को व्यवस्थित चलाने लगे थे।
सभी मिलकर काम करते, ओर अपने व्यवसाय की उन्नति की कामना करते थे, ईमानदारी से काम करना किसी भी व्यवसाय में आवश्यक होता है।
अब समय के साथ इनकी चाय की प्रसिद्धी अब पूरे जयपुर में होने लगी थी, स्वाद, रंग ओर जायका बेमिसाल स्वाद देने लगा था।
उस समय 15 पैसे में इतनी बेहतरीन क्वालिटी की चाय उपलब्ध होना, वाकई कमाल था।
उस समय जयपुर में साल भर में दो बार कवि सम्मेलन हुआ करते थे,एक होली के समय और एक दिपावली के समय।
उस दिन कवि सम्मेलन के समय रात में चाय की आवश्यकता होने पर इनकी दुकान से चाय मंगवाई गई।क्योंकि इनकी दुकान उस पूरी रात चालू रहती है, तो आसानी से चाय उपलब्ध हो गई थी।
वहाँ आए देश के बड़े-बड़े कवियों को इनके यहाँ की चाय बहुत पसंद आई। ओर उन्होंने बाद में इनकी दुकान पर जाकर चाय पी।
तब से अब तक इनकी दुकान बारह महीनें, हर दिन चालू रहती है। स्वाद ओर क्वालिटी के चलते इनके ग्राहक इनसे जुड़े है, दुकान आज भी वहीं पुराने रुप में ही है।
जब राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया थी, उस समय 26 जनवरी सन् 2013 के दिन वे अपने काफिले के साथ इनकी दुकान पर आकर चाय का प्याला लिया।
उसके बाद इनके व्यवसाय में ओर चार चांद लग गए।
इस वाक्ये के पहले भी जयपुर में आने वाले सभी सेलिब्रिटी साहू की चाय अक्सर पीते हैं।
अब इनके यहाँ मंत्री, मुख्यमंत्री, सासंद, ओर जितने भी बड़ी-बड़ी हस्ती है, चाय पीने आते रहते हैं।
भंवरलाल जी ने अपनी चाय की क्वालिटी बरकरार रखी है, शुद्ध दुध का ही चाय में इस्तेमाल किया जाता है।
आज भी चाय कोयले की भट्टी पर ही बनती है, शुद्धता का हमेशा ध्यान रखते हैं।
भंवरलाल जी बताते हैं, कि चाय तो हर जगह उपलब्ध हो जाती है, पर बनाने के तरीके, मेहनत, मसालों का अनुभव हर किसी के पास नहीं होता है।
इन्होंने जितना संघर्ष किया, सबसे पहले आर्थिक अस्थिरता के बीच दुकान लगाने का फैसला अपनी नौकरी छोड़ने का विचार, अपने परिवार को साथ लेकर चलना।
सबकुछ कभी आसान नहीं रहा है।
भंवरलाल जी अपनी समाज में अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि यह मानते हैं, कि जिस समय साहू रेस्टोरेंट की स्थापना नहीं हुई थी, उस समय तक जयपुर में इनके समाज के बंधुजन अपने नाम के साथ ” साहू ” ना लगा कर अपने गौत्र का प्रयोग करते थे, परन्तु जब से सन् 1977 से साहू रेस्टोरेंट की प्रसिद्ध बढ़ाने लगी। तब समाज के बंधुओं ने अपने नाम के साथ “साहू” लगाना शुरु कर दिया।
यह समाज में इनका सबसे बड़ा सहयोग है।
परिवार की जिम्मेदारी, किराये की दुकान, बच्चों की परवरिश करना पैसों की तंगी के वक्त कठिन था।
पर जो इनका फैसला था, उसे सही साबित करने के लिए, इन्होंने दिन रात मेहनत की ओर आज सम्पन्न दौर में जी रहे हैं।
इनके बच्चे इस व्यवसाय में ना आकर, अलग कार्यक्षेत्र में चले गए, परतुं इनके पोते हिमांशु ने अपने दादा के व्यवसाय को संभाल रखा है।
हिमांशु अब भविष्य में दुकान को नया रुप देने का विचार कर रहे हैं, वही पुराने स्वाद के साथ।
हिमांशु यही बताते हैं, कि उनके दादाजी भंवरलाल जी ने इन्हें व्यापार के लिए ईमानदार रहना सीखाया है, अच्छे व्यवहार ही व्यवसाय चलाने के लिए जरूरी होते है।
ये चाय में हमेशा स्वाद, और क्वालिटी को बरकरार रखने का प्रयास हमेशा करते हैं।
अब जो जिम्मेदारी हिमांशु पर है,
ये उसे अपना कर्तव्य ओर अपना सौभाग्य मानकर निभाते हैं, क्योंकि देश दुनिया में जो इनके प्रतिष्ठान का नाम है, उसे ओर आगे ले जाना इनका सपना है।